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04 February, 2011

Eshavasyopnishad


ईशावास्योपनिषद्
शान्तिपाठः
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!
अथ मन्त्राः
ईशावास्यमिदँसर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ॥१॥
हिन्दी अनुवाद :- विश्व में जो कुछ भी (चर या अचर) वस्तु है, वह सब ईश्वर से आच्छादित है । अतः उसका त्यागपूर्वक उपभोग करो, किसी के धन का लोभ मत करो । (यानि यह धन किसका है ? किसी का नहीं !)
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतँसमाः ।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥२॥
हिन्दी अनुवाद :- इस लोक में (शास्त्र-विहित) कर्मों को करते हुए ही सौ वर्ष जीवित रहने की इच्छा करे । इस प्रकार तुझमें (मानव में) कर्म लिप्त नहीं होता है । इससे इतर अन्य कोई मार्ग नहीं है ।
असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः ।
ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥३॥
हिन्दी अनुवाद :- प्राणादि की तृप्ति में निरत अज्ञानियों के जो प्रसिद्ध, (ज्ञान रूपी) प्रकाश से रहित, अज्ञानान्धकार से आच्छादित (व्याप्त) लोक हैं । जो आत्मघाती जन, मरकर उन लोकों में जाते हैं ।
अनेजदेकं मनसो जवीयो, नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षत् ।
ताद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥४॥
हिन्दी अनुवाद :- वह ब्रह्म ; अचल अर्थात् स्वरूप से अच्युत, (समस्त भूतों में) एक अर्थात् अद्वय, मन से भी अधिक वेगवान् या तीव्रगति, तथा सर्वत्र पहले से ही पहुँचा हुआ है । (चक्षुरादि) इन्द्रियाँ उस तक नहीं पहुँच सकीं । वह अचल या स्थित रहते हुए भी, दौड़ते हुए अन्य किसी का उल्लङ्घन-अतिक्रमण- किए हुए है । उसमें अर्थात् उसके आश्रय से वायु जल को धारण करता है ।
तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके ।
तदन्तरस्य सर्वस्य, तदु सर्वास्यास्य बाह्यतः ॥५॥
हिन्दी अनुवाद :- वह (आत्मा/ब्रह्म) गतिशील है, वह गतिशील नहीं (भी) है । वह दूर है, और समीप (भी) है । वह इस सब (विश्व) के भीतर है, और इस सब के बाहर (भी) है ।
यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति ।
सर्वभूतेषु चात्मानं, ततो न विजुगुप्सते ॥६॥
हिन्दी अनुवाद :- फिर जो ज्ञानी व्यक्ति (अव्यक्त से लेकर चराचर-पर्यन्त) समस्त भूतों को आत्मा में ही देखता है, तथा समस्त भूतों में आत्मा को ही देखता है, वह उस (अभेद-दर्शन) के कारण (किसी से) घृणा नहीं करता ।
यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद्विजानतः ।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥७॥
हिन्दी अनुवाद :- जिस अवस्था में आत्मा का विशेष ज्ञान-साक्षात्कारात्मक ज्ञान-प्राप्त किये हुए योगी की दृष्टि में समस्त चराचर जगत् आत्मा (ब्रह्म) ही हो गया, उस अवस्था में ऐसे एकत्वको देखने (अनुभव करने) वाले ज्ञानी को कैसा मोह और कैसा शोक ? (अर्थात् वह शोक/मोह से परे हो जाता है) ।
स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रण-
मस्नाविरँशुद्धमपापविद्धम् ।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्य-
तोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ॥८॥
हिन्दी अनुवाद :-  वह (ब्रह्म) सर्व-व्यापक, शुक्ल (दीप्तिमान्), शरीर से रहित, क्षत (घाव) से रहित, स्नायु-तन्तुओं (शिराओं, नसों) से रहित, निर्मल (अविद्यादि मल से रहित), पापों (धर्माधर्म जनित) से रहित सर्वज्ञ (ज्ञानी), सर्वोपरि स्थित एवं स्वयंसिद्ध है । वह परमेश्वर नित्य प्रजाओं (संवत्सराख्य प्रजापतियों- शा०भा०) के लिए यथार्थ रूप से पदार्थों का विधान करता है ।
अन्धं तमः प्रविशन्ति ये अविद्यामुपासते ।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाँरताः ॥९॥
हिन्दी अनुवाद :- जो मनुष्य केवल ‘अविद्या’ अर्थात् विद्या (देवता ज्ञान) से भिन्न (अग्निहोत्रादि) देव-कर्म की उपासना करते हैं, वे (जन्म-मरण रूप) घोर अन्धकार में पड़ते हैं । और जो लोग उसे छोड़कर केवल देव-विद्या की प्राप्ति में ही लीन रहते हैं, वे तो उनसे भी अधिक अज्ञान रूप अन्धकार में डूब जाते हैं ।
अन्यदेवाहुर्विद्यया अन्यदाहुरविद्यया ।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥१०॥
हिन्दी अनुवाद :- विद्या के द्वार फल (साध्य) दूसरा ही बतलाते हैं, और अविद्या के द्वारा (साध्य फल) दूसरा । इस प्रकार (हमने) बुद्धिमानों के (वचन) सुने हैं, जिन्होने हम लोगों के लिए उस (कर्म और ज्ञान) की व्याख्या की थी ।
विद्या चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयँसह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥११॥
हिन्दी अनुवाद :- जो मनुष्य विद्या-देवता-ज्ञान, और अविद्या-अग्निहोत्रादि शास्त्र-विहित कर्म, इन दोनों को साथ-साथ अर्थात् एक ही पुरुष द्वारा अनुष्ठेय जानता है, वह अविद्या (कर्म) के द्वारा ‘मृत्यु’ – मारक चित्तमल (अर्थात् तज्जन्य स्वाभीविक या सहज कर्म और ज्ञान ) को पार करके, विद्या (देवता-ज्ञान) के द्वारा ‘अमृत’ (देवतात्मभाव) को प्राप्त कर लेता है ।
अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते ।
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भृत्याँरताः ॥१२॥
हिन्दी अनुवाद :- जो अव्यक्त प्रकृति की उपासना करते हैं, वे घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं । (और) जो केवल व्यक्त अर्थात् कार्य ब्रह्म (हिरण्यगर्भ) की उपासना में निरत रहते हैं, वे उससे भी अधिक (घोरतर) अन्धकार में पड़ते हैं ।
अन्यदेवाहुः सम्भवादन्यदाहुरसम्भवात् ।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥१३॥
हिन्दी अनुवाद :- (ऋषियों ने) कार्य ब्रह्म (की उपासना) से दूसरा (भिन्न) ही फल कहा है, और अव्यक्त प्रकृति (की उपासना) से दूसरा ही । इस प्रकार बुद्धिमान् पुरुषों के वचन (हमने) सुने हैं, जिन्होने हमसे उसकी व्याख्या की है ।
सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयँसह ।
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वाऽसम्भूत्याऽमृतमश्नुते ॥१४॥
हिन्दी अनुवाद :- जो उन दोनों, प्रकृति और विनाशी कार्य ब्रह्म, को साथ-साथ (फल देने वाला) जानता है, वह ‘विनाश’ अर्थात् हिरण्यगर्भ नामक कार्य ब्रह्म की उपासना से ‘मृत्यु’ (अर्थात् अनैश्वर्य-असमृद्धि से उत्पन्न दुःख-समूह) को पार करके ‘असम्भूति’ (अर्थात् समस्त भूतों की कारण-भूत प्रकृति) की उपासना से ‘अमृत’ (अमृतत्व अर्थात् प्रकृति-लय) को प्राप्त कर लेता है ।
हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
तत्त्वं  पूष्न्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥१५॥
हिन्दी अनुवाद :- हे जगत्पोषक सूर्य ! ‘सत्य’ (आप के ज्योतिर्मय मण्डल में स्थित ब्रह्म) का द्वार देदीप्यमान पात्र से ढका हुआ है । उस ‘सत्य’ को (हृदय में) धारण करने वाले (अथवा, यथार्थ धर्म का अनुष्ठान करने वाले) मुझको दर्शन देने के लिए, उसे हटा लीजिए ।
पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन् समूह तेजो,
यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि ।
योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि ॥१६॥
हिन्दी अनुवाद :- हे सर्व पोषक ! हे एकचारिन् (एकाकी भ्रमण करने वाले) ! [अथवा, जगत् के एकमात्र द्रष्टा (चक्षु) ! –बृ० ५/५१ क०श०भा०] हे सर्व नियामक ! हे सूर्य ! हे प्रजापति के पुत्र ! अपनी किरणों को हटा लीजिए और तेज को समेट लीजिए । आपका जो अतिशय कल्याणमय स्वरूप है, उसे मैं आपके अनुग्रह से देख रहा हूँ । जो वह (अर्थात् आपके सुन्दर तेजोमण्डल में स्थित) है, एवं जो मेरे प्राणों (हृदय) में (रचा-बसा) पुरुष है वही मैं हूँ ।
वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तँशरीरम् ।
ॐ क्रतो स्मर कृतँस्मर, क्रतो स्मर कृतँ स्मर ॥१७॥
हिन्दी अनुवाद :- हे संकल्पात्मक अग्निदेव ! मेरा अध्यात्म (आभ्यन्तरिक) प्राण-वायु अविनाशी अधिदैवत (बाह्य) वायु-तत्त्व अर्थात् सूत्राख्य मुख्य प्राण को प्राप्त हो जाय । अनन्तर यह स्थूल शरीर भस्मसात् हो जाय , हे संकल्पात्मक (या यज्ञात्मक) हे अग्निदेव ! (‘अद्यावधि’ अनुष्ठित मेरे) कृत्य को याद करें ।
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् ।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो  भूयिष्ठां  ते  नमउक्तिं विधेम ॥१८॥
हिन्दी अनुवाद :- हे अग्निदेव ! हमारे सम्पूर्ण कर्मों को जानने वाले आप (शोभनकर्मफलभोग रूप) ऐश्वर्य के लिए हमें अच्छे मार्ग से ले चलिए । हमसे कुटिल मार्गानुसरण रूप पाप को अलग कर दीजिए (अर्थात् हमें विपरीत मार्ग पर चलने से बचाइए) हम आपके लिए अत्यधिक (अनेक बार) नमस्कार-वचन कहते हैं ॥
ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः!!!


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